वह तोड़ती पत्थरदेखा मैंने इलाहाबाद के पथ पर --वह तोड़ती पत्थर ।कोई न छायादार...पेड़, वह जिसके तले बैठी हुई स्वीकार;श्याम तन, भर बँधा यौवन,गुरु हथौड़ा हाथकरती बार बार प्रहार;सामने तरु - मालिका, अट्टालिका, प्राकार ।चड़ रही थी धूपगरमियों के दिनदिवा का तमतमाता रूप;उठी झुलसाती हुई लूरुई ज्यों जलती हुई भूगर्द चिनगी छा गयीप्रायः हुई दुपहर,वह तोड़ती पत्थर ।देखते देखा, मुझे तो एक बारउस भवन की ओर देखा छिन्न-तारदेखकर कोई नहींदेखा मुझे उस दृष्टि सेजो मार खा रोयी नहींसजा सहज सितार,सुनी मैंने वह नहीं जो थी सुनी झंकार ।एक छन के बाद वह काँपी सुघर,दुलक माथे से गिरे सीकार,लीन होते कर्म में फिर ज्यों कहा --"मैं तोड़ती पत्थर"-
Poem by Surya Kant Tripathi Nirala
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